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त्वं होता॒ मनु॑र्हि॒तोऽग्ने॑ य॒ज्ञेषु॑ सीदसि। सेमं नो॑ अध्व॒रं य॑ज॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tvaṁ hotā manurhito gne yajñeṣu sīdasi | semaṁ no adhvaraṁ yaja ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

त्वम्। होता॑। मनुः॑ऽहितः। अग्ने॑। य॒ज्ञेषु॑। सी॒द॒सि॒। सः। इ॒मम्। नः॒। अ॒ध्व॒रम्। य॒ज॒॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:14» मन्त्र:11 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:27» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:11


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब अगले मन्त्र में अग्निशब्द से ईश्वर का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) जो आप अतिशय करके पूजन करने योग्य जगदीश्वर ! (मनुर्हितः) मनुष्य आदि पदार्थों के धारण करने और (होता) सब पदार्थों के देनेवाले हैं, (त्वम्) जो (यज्ञेषु) क्रियाकाण्ड को आदि लेकर ज्ञान होने पर्य्यन्त ग्रहण करने योग्य यज्ञों में (सीदसि) स्थित हो रहे हो, (सः) सो आप (नः) हमारे (इमम्) इस (अध्वरम्) ग्रहण करने योग्य सुख के हेतु यज्ञ को (यज) सङ्गत अर्थात् इसकी सिद्धि को दीजिये॥११॥
भावार्थभाषाः - जिस ईश्वर ने सब मनुष्यों आदि प्राणियों के शरीर आदि पदार्थों को उत्पन्न करके धारण किये हैं, तथा जो यह सब कर्म उपासना तथा ज्ञानकाण्ड में अतिशय से पूजने के योग्य है, वही इस जगत् रूपी यज्ञ को सिद्ध करके हम लोगों को सुखयुक्त करता है॥११॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निशब्देनेश्वर उपदिश्यते।

अन्वय:

हे अग्ने ! यस्त्वं मनुर्हितो होता यज्ञेषु सीदसि स त्वं नोऽस्माकमिममध्वरं यज सङ्गमय॥११॥

पदार्थान्वयभाषाः - (त्वम्) जगदीश्वरः (होता) सर्वस्य दाता (मनुर्हितः) मनुषो मननकर्त्तारो मनुष्यादयो हिता धृता येन सः (अग्ने) पूजनीयतम (यज्ञेषु) क्रियाकाण्डादिविज्ञानान्तेषु सङ्गमनीयेषु (सीदसि) अवस्थितोऽसि (सः) जगत्स्रष्टा धर्त्ता च (इमम्) अस्मदनुष्ठीयमानम्। अत्र सोऽचि लोपे चेत्पादपूरणम्। (अष्टा०६.१.१३०) अनेन सोर्लोपः। (नः) अस्माकम् (अध्वरम्) अहिंसनीयं सुखहेतुम् (यज) सङ्गमयास्य सिद्धिं सम्पादय॥११॥
भावार्थभाषाः - येनेश्वरेण सर्वे मनुष्यव्यक्त्यादय उत्पाद्य धारिता, यस्मादयं सर्वेषु कर्मोपासनाज्ञानकाण्डेषु पूज्यतमोऽस्ति, तस्मात्स एवेदं जगदाख्यं यज्ञं सङ्गमयित्वाऽस्मान् सुखयतीति॥११॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - ज्या ईश्वराने सर्व माणसे व प्राणी यांचे शरीर इत्यादी पदार्थांना उत्पन्न करून धारण केलेले आहे, तसेच जो ज्ञान, कर्म, उपासनेत अत्यंत पूजनीय आहे तोच हा जगतरूपी यज्ञ सिद्ध करून आम्हाला सुख देतो. ॥ ११ ॥